Sunday, December 6, 2009

खिड़की ने किया जीना दुश्वार, कोर्ट से गुहार

जज साहब! पड़ोसी की खिड़की मेरे लिए जी का जंजाल बन गई है। खिड़की को न तो पुलिस बंद करा सकी और न ही नगर निगम। ऐसे में मुझे अदालत की शरण लेनी पड़ी। जाफराबाद के युवक ने कड़कड़डूमा कोर्ट में खिड़की बंद कराने के लिए याचिका दायर की है।
जाफराबाद इलाके में रहने वाले इमरान (काल्पनिक नाम) ने पड़ोसी शाहिद (काल्पनिक नाम) के मकान की खिड़की बंद कराने के लिए सिविल जज की अदालत में याचिका दायर की है। याचिका में इमरान का कहना है कि वह जाफराबाद स्थित मकान में प्रथम तल पर किराये पर रहता है। उसके कमरे के आगे बालकनी है। उसकी शादी को तीन माह हुए हैं। सामने बने मकान में रहने वाले युवक शाहिद ने कमरे की दीवार तोड़ कर उनकी तरफ खिड़की निकाल ली। वहां से शाहिद उसकी पत्नी को गलत इशारे करता है। उसने कई बार शाहिद को धमकाया, लेकिन वह हरकतों से बाज नहीं आया। जब भी वह बालकनी में सिगरेट पीने के लिए खड़ा होता है तो शाहिद उस पर पानी गिरा देता है। उसने कई बार शाहिद के खिलाफ पुलिस को शिकायत की, लेकिन उसने कोई कार्रवाई नहीं की। पुलिस ने कहा कि शाहिद ने खिड़की बिना नक्शा पास कराए मकान में अवैध रूप से बनाई है। वह इसकी नगर निगम को शिकायत कर उसकी खिड़की बंद करा सकता है। उसने मामले की शिकायत निगम अधिकारियों को भी की, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। निगम अधिकारियों के चक्कर काटने पर भी उसे लाभ न पहुंचा तो उसे मजबूरन पड़ोसी की खिड़की बंद कराने के लिए अदालत की शरण लेनी पड़ी।

Tuesday, December 1, 2009

काँच की बरनी और दो कप चाय

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब
कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के
चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो
कप चाय " हमें याद आती है ।
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा
कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...
उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और
उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें
एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या
बरनी पूरी भर गई ? हाँ ... आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे -
छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये h धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी
सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने
पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ... कहा अब
प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना
शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी
नादानी पर हँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी
पूरी भर गई ना ? हाँ .. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा
.. सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में
डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ...
प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया –

इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो ....

टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे
, मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं ,

छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और

रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है ..

अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस
की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो
गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ...
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे
पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों
के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये
तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो ,
सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ , घर के बेकार सामान को बाहर निकाल
फ़ेंको , मेडिकल चेक - अप करवाओ ... टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले
करो , वही महत्वपूर्ण है ... पहले तय करो कि क्या जरूरी है ... बाकी सब
तो रेत है ..
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह
नहीं बताया कि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले
.. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ...
इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे ,
लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।

Tuesday, October 20, 2009

रिवाज

दरवाजे पर दो कच्चे बांस, कफन और धूप-दीप पडा देखकर पडोसी समझ गये यहां कोई मरा है। लेकिन अंदर से कोई रोने-गाने की आवाज नहीं आ रही थी। पडोसियों को आश्चर्य हुआ और जिज्ञासा भी कि मौत के माहौल में भी लोग शांत रह लेते हैं।

एक घंटा के अंदर पडोसी बिना बुलाए मंहगाई की तरह दरवाजे पर जमा होने लगे। उनमें से कुछ लोग बांस काटकर अरथी बनाने में लग गये तो कुछ लोग संभावित मुर्दा के बारे में अनुमान लगाने में। समय गुजरता रहा। दरवाजे पर जमा भीड के शोरगुल ने गृहस्वामी को बाहर निकाल ही दिया।

गृहस्वामी बीस-बाईस साल का युवक था, जिसको देखकर लोगों ने सहज ही अनुमान लगा लिया कि इसको अभी कर्मकांड का अनुभव नहीं है। इसीलिए अरथी उठाने में विलम्ब हो रहा है। भीड ने पूछा- भगवान ने किसको अपने पास बुलाया?

लडका-मेरे बाप को घाट ले जाना है। इतना कह कर लडका अंदर चला गया। भीड में फिर चर्चा होने लगी कि- लडका बहुत उजड्ड है। उसके चेहरे पर दु:ख का कोई लक्षण तक नहीं है। पालतू कुत्ते के मरने पर भी लोग दु:खी होते हैं, इसका तो बाप ही मरा है। लेकिन लडके की बोली तो सुनो।

बाहर पडोसी और अरथी मुर्दा के बाहर आने की प्रतीक्षा करते रहे और समय गुजरता रहा। ऊबकर भीड ने लडके को बाहर बुलाकर पूछा- घाट जाने में अभी और कितनी देर है?

लडका बोला- अभी मैं निर्णय कर रहा हूं कि इसका दाह संस्कार का आरंभ घर से किया जाय कि घाट से। भीड में फिर शोर उठा- ये क्या पागलों वाली बात है? दाह संस्कार तो घाट पर ही होता है।

लडका- शादी-विवाह और कर्म-कांड तो सभी के यहां होता है। लेकिन सभी के यहां के रिवाज एक सा तो नहीं होता है। खैर जब पंचों की मर्जी है कि दाह संस्कार का आरंभ घाट पर ही हो तो ऐसा ही होगा, चला जाये घाट की ओर।

भीड फिर बाहर प्रतीक्षा करने लगी। पांच-दस मिनट में लडके ने अपने बाप को लाकर अरथी पर लिटा दिया। भीड जब अरथी सजाने लगी तो मुर्दा बोला- अभी तो मैं जिंदा हूं। भीड में फिर शोर उठा- बाप अभी जिंदा है और लडका उसे मारने पर तुला है। क्या समय आ गया है? बाप को दो रोटी देना भी लडकों को अखरता है।

लडका- बात रोटी की नहीं है। बात रिवाज की है। आदमी के जीवन-मृत्यु का हिसाब तो ऊपर से ही तय होता है। मेरे यहां का रिवाज है कि दाह संस्कार जीते जी ही किया जाता है। जब मैं पांच-छ: साल का बच्चा था, तो इस आदमी ने मेरी मां का दाह संस्कार जीते जी ही सम्पन्न किया था। भले ही इसे उसके लिए उम्र कैद की सजा हो गयी। समाज या कानून भले ही इसे हत्यारा, पत्नीहन्ता चाहे जो भी कहे, है तो मेरा बाप। मुझे तो अपनी मां की आत्मा की शांति के लिये खानदानी रिवाज निभाना ही होगा।

Thursday, October 1, 2009

नया आटो सवा लाख, कबाड़ तीन लाख

कहावत है जिंदा हाथी लाख और मरा सवा लाख का। दिल्ली की सड़कों से बाहर हुए हजारों आटोरिक्शा भी यही कहानी दोहरा रहे हैं। जी हां, नए आटोरिक्शा की शोरूम कीमत लगभग 1.25 लाख रुपये, कबाड़ की कीमत है ढाई से तीन लाख रुपये, जबकि मार्केट में आटो बिक रहा है चार से साढ़े चार लाख रुपये में। यानी राजधानी दिल्ली में आटोरिक्शा के परमिट की खुलेआम ब्लैक बिक्री।

करोड़ों के इस खेल में खरीददार होते हैं यूपी-बिहार के लोग। खेत-खलिहान बेचकर लगा देते हैं परमिट की बोली। यह तब से है, जब से आटो रिक्शा के नये परमिट पर रोक लगा है। साथ ही 55 हजार आटोरिक्शा से अधिक न होने पर पाबंदी है। पाबंदी लगने से पहले दिल्ली में 83000 आटो हुआ करते थे। सरकार भी जानती है, लेकिन खामोश है। अब हो सकता है, परमिट पर लगी पाबंदी हट जाए। क्योंकि, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश में बनी भूरे लाल कमेटी लोगों से नये परमिट जारी करने के संबंध में राय ले रही है। बात बन गई तो हजारों नये लोगों को अवसर तो मिलेंगे ही साथ ही पुराने परमिट की कीमतें भी कम हो जाएंगी।

होता यूं है कि आटो रिक्शा के 'सी', 'डी' एवं 'ई' सीरीज वाली गाड़ियां जो कबाड़ हो चुकी हैं, उन्हें खरीदा जाता है। इस कबाड़ की कीमत तो वैसे परिवहन विभाग के मुताबिक लगभग 5800 रुपये होता है। लेकिन, गाड़ी के साथ परमिट ढाई से तीन लाख रुपये में बिक जाता है। इसके बाद खरीददार परमिट अपने नाम करवा कर गाड़ी स्क्रैप करवा देते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में दो से तीन महीने लगते हैं। परमिट और स्क्रैपिंग ओके होने के बाद खरीददार नया आटो 1.35 लाख रुपये में खरीद लेता है। इंश्योरेंस, नया मीटर, फिटनेस, प्रदूषण आदि कार्रवाई के बाद सड़क पर आते आते एक आटो की कीमत चार से साढे चार लाख रुपये तक हो जाती है। इस पूरे 'खेल' में शामिल होते हैं परिवहन विभाग के कर्मचारी, फाइनेंसर, ब्रोकर और आटो क्षेत्र की कुछ तथाकथित यूनियनें।

इस बावत टैक्सी आटो रिक्शा ड्राइवर संघर्ष समिति के अध्यक्ष सोमनाथ, फेडरेशन ऑफ ऑल दिल्ली आटो टैक्सी ट्रांसपोर्टर्स के अध्यक्ष किशन वर्मा, भाजपा ट्रांसपोर्ट प्रकोष्ठ के संयोजक आनंद त्रिवेदी, राजिंदर सोनी आदि का कहना है कि सारा खेल परमिट का है। अगर नए परमिट पर लगी रोक हट जाए तो ब्लैक मार्केट एक दिन में खत्म हो जाए।


53 प्रतिशत लड़कियां नहीं पहुंच पाती स्कूल

भले ही महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देने के सरकार दावे करता रहे, लेकिन हकीकत आज भी इन दावों को कोसो दूर है। देश में महिलाओं को हालात में सुधार की गति दावों के बहुत कम है। यही कारण है कि कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथाएं आज भी समाज में अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। प्रतिदिन सात हजार लड़कियों को पेट में ही मौत की नींद सुला दी जाती है। वहीं संविधान द्वारा चौदह साल तक के बच्चों को दिए जाने वाले शिक्षा के अधिकार से भी यह बच्चियां वंचित हो रही है। इसके चलते नौ साल तक की उम्र तक पहुंचने के बाद भी 53 प्रतिशत लड़कियां स्कूल नहीं जा पा रही है।

चाइल्ड राइट एंड यू नामक गैर सरकारी संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि ग्रामीण इलाकों में 15 प्रतिशत लड़कियों की शादी 13 साल की उम्र में ही कर दी जाती है। इनमें से लगभग 52 प्रतिशत लड़कियां 15 से 19 साल की उम्र में गर्भवती हो जाती है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 73 प्रतिशत लड़कियों में खून की कमी है। वहीं अगर उनको डायरिया हो जाता है तो 28 फीसदी को कोई दवा नहीं दिलाई जाए। जयपुर में 51.50 प्रतिशत व ग्रामीण इलाकों में रहने वाले 67 प्रतिशत पिताओं का कहना है कि अगर आर्थिक तंगी आती है वह अपनी बच्ची का स्कूल जाना बंद करवा देंगे। एक अनुमान के अनुसार 24 प्रतिशत लड़कियों को शिक्षा से वंचित रहना पड़ रहा है। जो पढ़ना शुरू कर भी देती है उनमें से 60 प्रतिशत सेकेंड्री स्कूल तक भी नहीं पहुंच पाती है।

24 सितंबर को मनाए जाने वाले गर्ल चाइल्ड डे पर सीआरवाई ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह महिला व बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ सहित अन्य को अपनी मांगों का एक चार्टर सौंपा है। सीआरवाई के जनरल मैनेजर कुमार निलेंदू ने बताया कि जब तक सरकार व पब्लिक बड़े स्तर पर लड़कियों के एक समान विकास पर ध्यान नहीं देंगे तब तक इन परिस्थितियों को बदल पाना संभव नहीं है।





Monday, September 21, 2009

फर्क

सड़क पर दो कुत्ते आपस में लड़ रहे थे। पास के दुकानदार को नागवार गुजरा। उसने आवाज देकर कुत्तों को भगाना चाहा, पर कुत्ते लड़ते-भौकते ही रहे। तब दुकानदार ने सड़क से एक बड़ा-सा पत्थर उठाया और चला दिया उन कुत्तों पर। इसके पहले कि उन्हे पत्थर लगता वे दोनों रफूचक्कर हो गये। और इत्तफाकन वह पत्थर पड़ोसी की दुकान में जा गिरा और उसका शोकेस का शीशा टूट गया। वह नाराज होकर बुरा भला कहने लगा। पत्थर चलाने वाले दुकानदार ने समझाने की कोशिश की कि उसने जानबूझकर दुकान पर पत्थर नहीं फेंका था। परंतु दूसरा दुकानदार मानने को तैयार ही नहीं था। वह दुकान में हुए नुकसान की भरपाई की मांग कर रहा था। बात यों बढ़ी कि दोनों गाली-गलौज से मारपीट पर उतर आए और फिर ऐसे भिड़े कि एक का सर फट गया। मामला पुलिस तक जा पहुंचा। पुलिस मामला दर्ज कर दोनों को वैन में बिठाकर थाने ले जा रही थी कि रास्ते में लाल सिगनल पर गाड़ी रुकी। पत्थर चलाने वाले ने बाहर झांका देखा, लड़ने वाले वही दोनों कुत्ते एक जगह बैठे उनकी तरफ कातर दृष्टि से देख रहे थे। पत्थर चलाने वाले शख्स को लगा मानो वे दोनों हम पर हंस रहे हों तथा एक दूसरे से कह रहे हों, ''यार, ये तो सचमुच के लड़ गये।''

दूसरे ने कहा, ''हां यार, हमें तो लड़ने की आदत है और हमारी कहावत भी जग जाहिर है परन्तु ये तो हम से भी दो कदम आगे है।''

hansne k kuch bahane


No smoking
insaano ne chod di ab hum shuru kar dete hain, kyun bhai log bolo dum maro dum
Pig on cycle
bhago nahi to log muje swine flu ka karan keh kar maar dalenge

Modification of indian airlines
kuch is tarah udne ka mazaa hi kuch or hai

Funny Monkeys
ise kehte hain bander-baat or loot-paat

About to fall
ab china walon se isse jyada ummid bhi kya ki ja sakti hai