Saturday, March 28, 2009

एक स्कूल में तीन गांव के 2000 बच्चे

चाहे शहर हो या गांव, हर जगह शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान पर रखा जा रहा है। हर कोई अपने बच्चे को बेहतर शिक्षा दिलवाना चाहते हैं, लेकिन विडंबना है कि अर्थाभाव के कारण कुछ लोग अपने नौनिहालों को उच्च शिक्षा के लिए गांव से बाहर भेज ही नहीं पाते। इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि शिक्षा के महत्व को समझने के कारण ही आज गांवों में भी सड़क, बिजली, पानी से कहीं ज्यादा तरजीह स्कूलों को दी जा रही है। लेकिन इससे बड़ी विडंबना भला और क्या होगी कि आज भी कई गांवों में जहां स्कूल ही नहीं हैं और यदि हैं भी तो उनकी हालत बदतर है। कोढ़ में खाज यह कि देश की राजधानी दिल्ली में ऐसे कई गांव हैं जहां एक भी स्कूल नहीं हैं। अगर किसी गांव में स्कूल है भी तो वहां केवल पांचवी तक की शिक्षा दी जाती है और उन स्कूलों में एकाध नहीं, तीन गांवों के बच्चे पढ़ते हैं।
उत्तर-पूर्वी संसदीय क्षेत्र का हिस्सा बने तीन गांव वजीराबाद, जगतपुर और संगम विहार में आजादी के साठ साल बाद भी शिक्षा की वह किरण नहीं पहुंच पाई है जिसकी उम्मीद आजादी के बाद के लोगों को थी। वजीराबाद गांव सौ साल पुराना है, पास के गांव जगतपुर व संगम विहार हैं। वजीराबाद गांव में एक स्कूल खुला, वह भी पांचवीं तक। साल दर साल बीतते गए, न तो सेकेंडरी स्कूल खुला, न ही हायर सेकेंडरी। बच्चे को दूर मुखर्जी नगर, नेहरू विहार आदि जाना पड़ता है। तीनों गांव को मिलाकर आबादी 70 हजार से भी ज्यादा है। एक स्कूल है तो उसमें करीब दो हजार बच्चे हैं जिसमें ज्यादा संख्या वजीराबाद की है। सरकार की सूची में शिक्षा भले ही उच्च स्थान हो, लेकिन यहां की स्थिति देख नहीं लगता कि शिक्षा के बारे में इन इलाकों के लिए भी कुछ सोचा जाता है।
गांव के ही शिक्षक पप्पू कहते हैं कि गांव में पांचवीं तक की पढ़ाई की व्यवस्था है। आगे की शिक्षा के लिए बाहर जाना पड़ता है। लड़के तो चले भी जाते हैं, लेकिन ग्रामीण ताने-बाने के कारण लड़कियां बाहर नहीं जा पाती हैं। ऐसे में उनकी पढ़ाई पांचवीं के बाद ही बंद हो जाती है। वे कहते हैं कि इतना बड़ा गांव होने के बावजूद यहां पर सरकार पांचवीं के आगे की पढ़ाई के लिए चिंतित नहीं है। चुनाव दर चुनाव बीत गए और मांगों का झंडा बुलंद करने वाले भी थक गए, लेकिन शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया गया। अब देश के लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर के लिए हो रहे चुनाव में यहां के लोग तो यही उम्मीद पाले बैठे हैं कि अब शायद संसद के 'बाबू' ही उनकी कुछ सुनेंगे।

1 comment:

Reema said...

शर्मनाक!!!