विदाई के समय मां ने दीक्षा को समझाया- ''बेटी अपने ससुराल वालों का ख्याल रखना। आज से वही तेरा घर है। हर सुख-दु:ख में उनका साथ देना। उनकी इज्जात ही तेरी इज्जात है।'' मां के बताए संस्कारों और अपने मधुर स्वभाव से दीक्षा ने ससुराल में सभी का दिल जीत लिया।
हंसते-गाते कब एक वर्ष बीत गया पता ही न चला। लेकिन अब उसके ससुराल वाले घोर चिंता में थे। उसकी ननद की शादी होनी थी। रुपयों का इंतजाम नहीं हो पा रहा था। दीक्षा भी बहुत परेशान थी।
इसी बीच वह अपने मायके आई और वहां रखे हुए अपने गहने ले जाने लगी तो उसकी मां ने कहा- ''बेटी दीक्षा, ननद की शादी के लिए तू अपने गहने ले जा रही है यह तू क्या कर रही है? अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी..।''
मां की बात बीच में ही रोकते हुए वह बोली- ''मां यह आप क्या कह रही हो! आप ही ने तो मुझे बताया है कि ससुराल की इज्जात ही मेरी इज्जात है। मां, यह गहने मेरी ननद से बढ़कर नहीं है। अपनी ननद की शादी के लिए मैं हर संभव प्रयत्न करूंगी।'' और वह गहने लेकर ससुराल आ गई।
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