तीर्थपुरी में चार दिन रहने के बाद वापसी में प्लेटफार्म पर बैठा मैं ट्रेन का इंतजार कर रहा था कि सामने आठ दस लोगों के एक परिवार पर नजर पड़ी।
परिवार का मुखिया मुट्ठी में कुछ रुपये दबाये पंडित जी से विनती कर रहा था, ''पंडित जी आपने हमारे पूरे परिवार को दो दिन काफी अच्छी तरह से सारे मंदिरों के दर्शन कराये, पूजा अर्चना भी कराई। ये हमारी तरफ से जो बन पड़ा उसे दक्षिणा के रूप में स्वीकार कीजिये।'' पंडित जी ने जानना चाहा, ''कितने है?''। ''देखिये महाराज जितनी हमारी श्रद्धा है उतना दे रहे है। कृपया स्वीकार करे।'' उन्होंने घाटे की आशंका से अपने मन की बात खोल ही दी, ''देखिये यजमान मैं पूरे दो दिन आपके साथ रहा। आपके पूरे परिवार को अच्छी तरह से दर्शन कराये आपको कम से कम पांच सौ रुपये तो देने ही पड़ेगे।'' ''पंडित जी मैंने अपने मन में बरसों से जो सोचा हुआ था उसे पूरा कर लेने दीजिये। वैसे ये तो अपनी अपनी श्रद्धा की बात होती है हमारी इतनी श्रद्धा है इसमें ना नहीं कीजिये!'' यजमान ने एक बार पुन: विनती की। पर पंडित जी नहीं माने, ''देखिये यजमान मैं तो पांच सौ रुपये ही लूंगा। आपके सोचने से थोड़े ही कुछ होता है।
कुछ मैंने भी तो अपने मन में सोचा हुआ है।'' यजमान ने थोड़ी देर सोचा और अंतिम बार पंडित जी से पूछा, ''तो आपको ये रुपये नहीं चाहिये?'' - ''नहीं यजमान, मैं आपको पहले ही बता चुका हूं, मुझे तो पांच सौ रुपये ही चाहिये।''
यजमान ने मुट्ठी खोली उसमें पांच पांच सौ के चार नोट थे। उसमें से उन्होंने एक नोट पंडित जी को दिया और बाकी के तीन नोट पास खड़े भिखारी को दे दिये।
6 comments:
a very thoughtful note. I liked it. It teaches you not to be greedy. aur jiski kismat mai jo likha hai vo hi milega. A nice post. Keep up the good work
thanx for comment bhawna
जे बात !!
आया मज़ा !!
हा हा हा
mast hai bidu, kismat se jyada kuch nahi milta
आप ने मेरी लिखी यह कहानी बिना मेरी इजाजत लिये तथा बिना मेरा नाम छापे अपने बाप का माल समझ के अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर दी. क्या आपको ऐसा करने का अधिकार है. मेरी यह कहानी दैनिक जागरण में दिनांक 17.05.2010 को प्रकाशित हुयी थी जिसे आप अपने ब्लाग पर छाप कर मूछों पर ताव दे रहे हैं.
उमेश मोहन धवन, कानपुर
आप ने मेरी लिखी यह कहानी बिना मेरी इजाजत लिये तथा बिना मेरा नाम छापे अपने बाप का माल समझ के अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर दी. क्या आपको ऐसा करने का अधिकार है. मेरी यह कहानी दैनिक जागरण में दिनांक 17.05.2010 को प्रकाशित हुयी थी जिसे आप अपने ब्लाग पर छाप कर मूछों पर ताव दे रहे हैं.
उमेश मोहन धवन, कानपुर
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