जरा याद कीजिए वे दिन जब चुनाव आते ही पूरा का पूरा मोहल्ला नारों से गुंजायमान रहता था। पार्टी की रीति, नीति और लक्ष्य की झलक समेटे ये नारे इतने पावरफुल होते थे कि पूरा का पूरा चुनाव पलटने की क्षमता रखते थे। जेब पर लगा पार्टी का 'बिल्ला' , जुबां पर नारों की मिठास और लड़कों की टोलियां संबंधित पार्टी के पक्ष में चुनावी माहौल तैयार करने मे एक अहम भूमिका निभाती थीं। अब तो वेबसाइट पर छिड़ी जंग और सियासी दलों की हाईटेक चुनाव प्रचार की शैली में वो प्यारे-प्यारे नारे गुम हो गये और उनकी मिठास घुल गई।
साठ के दशक में जनसंघ के नेता जनता से कांग्रेस सरकार बदलने के लिए अपने भाषणों में खूब तीखी शैली का प्रयोग करते थे। उनकी काट के लिए कांग्रेसियों ने नारा दिया था- 'दीपक बुझ गया तेल नहीं, सरकार बदलना खेल नहीं।' इस नारे ने उस समय कांग्रेस के पक्ष में माहौल तैयार करने में बहुत अहम भूमिका निभाई थी। पिछड़ों को सत्ता में पर्याप्त भागीदारी देने के लिए समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया का वह नारा अन्य पार्टियों के भी वरिष्ठ नेता आज तक नहीं भूले हैं जिसमें उन्होंने कहा था-'सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ '। इस नारे ने पिछड़ों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई थी।
पाकिस्तान से युद्ध जीतने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूरा लोकसभा चुनाव 'गरीबी हटाओ' के नारे पर लड़ा और सफलता पाई। यह नारा चुनाव के बाद भी काफी लोकप्रिय और स्थायी रहा था। जनता पार्टी के ढाई साल के शासन से त्रस्त जनता की भावनाओं को भुनाकर कांग्रेस ने अपने पक्ष में माहौल तैयार करने के लिए नारा दिया-'आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा जी को लाएंगे।' इसी के साथ 'इंदिरा लाओ, देश बचाओ' नारा भी खूब चला।
क्षेत्रीय स्तर पर बनीं कई सियासी पार्टियों ने अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए जातीयता का सहारा लेना शुरू किया जिससे जातिवादी राजनीति का जहर राजनीतिक फिजां में घुलने लगा। इससे टक्कर लेने के लिए कांग्रेस ने नारा ईजाद किया-'जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मोहर लगेगी हाथ पर'। यह भी काफी लोकप्रिय रहा। इंदिरा गांधी के निधन के बाद वर्ष 1984-85 में राजीव गांधी जब पहला चुनाव लड़े तो उनकी सभाओं में जुटी भीड़ एक तरफ हाथ उठाती तो दूसरी तरफ यह नारा गूंजता था-'उठे करोड़ों हाथ हैं, राजीव जी के साथ हैं।' अमेठी में कांग्रेस की स्टार प्रचारक के तौर पर जब प्रियंका गांधी प्रचार करने पहुंचीं तो वहां के लोगों की जुबां पर बस एक ही नारा था-अमेठी का डंका, बेटी प्रियंका।
अपने चुनाव चिन्ह 'हाथी' की प्रतिष्ठा में बसपा के इस नारे ने भी काफी धूम मचायी थी- 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु महेश है।' यह नारा ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी काफी लोकप्रिय है। कुछ क्षेत्रों में इसके सवर्ण प्रत्याशियों ने पार्टी के परम्परागत वोटों के साथ ही बिरादरी के वोट बटोरने के लिए किसी और माध्यम के बजाय इस नारे का सहारा लिया 'पत्थर रख लो छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर।' जो काफी चर्चित रहा।
अटल जी को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने के साथ ही भाजपा ने इस नारे को अपने पक्ष में खूब भुनाया 'अबकी बारी, अटल बिहारी।' यह नारा लिखे हुए अटल जी के पोस्टर को हर शहर और गली में देखा जाता था। केंद्र में भाजपा की सरकार गई तो फिर भाजपा ने नारा दिया- 'कहो दिल से, अटल फिर से' जो उत्तर भारत में काफी लोकप्रिय रहा।
1 comment:
bahut khub likha aapne
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