राजनीति के गलियारों में खासी धमक रखने वाले कई राजनेता इन दिनों अपनी स्मृतियों को कलमबद्घ करने में लगे हुए है, जो आने वाले कुछ महीनों में पुस्तक के रूप में बाजार में आ जाएंगी।
इन बहुप्रतीक्षित पुस्तकों में चौदहवीं लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की पुस्तक भी शामिल है। हार्पर कोलिंस नामक प्रकाशन गृह और सोमनाथ दा के बीच इस पुस्तक को एक साल में पूरा करने का करार हुआ था। उनके लोकसभा और पार्टी की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होने के कारण इस पुस्तक के निश्चित समयसीमा के अंदर ही समाप्त होने की उम्मीद की जा रही है। इसके अतिरिक्त उन्होंने पेंग्विन इंडिया से बंगाल की राजनीति पर आधारित एक पुस्तक लिखने का अनुबंध भी किया है। सोमनाथ दा के राजनैतिक कॅरियर में काफी विवादास्पद घटनाओं के होने और सीपीएम से उनके आक्रामक अलगाव के कारण पाठक बहुत ही बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे है कि आखिर वह कहना क्या चाहते हैं? वह खुद भी इस पुस्तक को थोड़ा खट्टा और थोड़ा मीठा बताकर पूर्व प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे है। बहुत सारे लोग यह अनुमान भी लगा रहे है कि इसमें वामपक्ष पर तीखा प्रहार किया गया होगा, जो एक बार फिर नई बहस को जन्म देगा।
पूर्व लोकसभा अध्यक्ष और गृहमंत्री के रूप में उपेक्षा के शिकार बने शिवराज पाटिल भी अपनी स्मृतियों को पुस्तक का रूप देने में लगे है। माना जा रहा है कि पाटिल को किसी प्रकाशक ने फायनेंस नहीं किया है। प्रकाशन उद्योग के सूत्रों की मानें तो उनकी पुस्तक में कोई भी विवादास्पद बात नहीं होगी। पाटिल के महाराष्ट्र के सहयोगी ए.आर. अंतुले भी जीवनी लिखने में मशगूल है।
कांग्रेस के एक और वयोवृद्घ नेता अर्जुन सिंह के जीवन की कहानी को पत्रकार रामशरन जोशी कागज पर उतार रहे है। 'एक सहयात्री इतिहास का' नामक यह पुस्तक लगभग तैयार तो है, पर इसका विमोचन चुनाव के बाद किया जाएगा। कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा इसके विवादास्पद व विस्फोटक लेखन के कारण किया जा रहा है। उदाहरणस्वरूप पुस्तक में अर्जुन की कांग्रेस के लिए पूर्ण प्रतिबद्घता के बाद भी उपेक्षा मिलने की बात की गई है। एक स्थान पर आत्मकथा लेखक जोशी ने लिखा है कि सोनिया गांधी द्वारा अर्जुन सिंह को राष्ट्रपति न बनाए जाने पर उन्हें व उनके परिवार को गहरा धक्का लगा था। इसी कड़वाहट के परिणामस्वरूप उनकी बेटी ने लोकसभा का चुनाव स्वतंत्र रूप से कांग्रेस के विरुद्घ लड़ने का निर्णय लिया था। आशा की जा रही है कि यह पुस्तक ऐसी ही कुछ कड़वाहटों को बाहर लाएगी। इसके प्रकाशक राजकमल प्रकाशन का कहना है कि चुनावों के बाद शीघ्र ही यह पुस्तक बाजार में होगी।
प्रणव मुखर्जी भी ऐसी ही एक कहानी लिखने में जुटे है। विदेश मंत्री की जिम्मेदारियां संभालने के साथ ही प्रणव अपनी पार्टी के मुख्य कर्ता-धर्ता व खेवनहार रहे हैं। मंत्रिमंडल का शायद ही ऐसा कोई समूह या समिति होगी जिसमें वे किसी न किसी रूप में शामिल न रहे हों। घटनाप्रधान राजनैतिक जीवन और उतनी ही घटनाप्रधान स्मृतियों के कारण आशा की जा रही है कि उनकी यह पुस्तक उस समय के लोगों के जीवन का वर्णन भी करेगी। उन्होंने भले ही अभी तक कोई प्रकाशक नहीं चुना हैं पर उम्मीद जताई जा रही है कि एक बार वह इसके लिए तैयार होने पर उनके पास बहुत सारे विकल्प होंगे।
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