आग.. आग.. आग.. का शोर सुनकर मेरी नींद खुल गई।
छत पर पहुँचा तो देखा कि पास-पड़ोस के लोग भी अपनी-अपनी छतों पर चढ़े सामने की झोपड़पट्टी में आग लगने से ऊंची-ऊंची उठती लपटे देख रहे थे। लोग वहां पर इधर-उधर भाग रहे थे। किसी के हाथ में बाल्टी थी तो कोई प्लास्टिक का डिब्बा ही पानी से भर-भरकर आग बुझाने की मशक्कत में जुटा था। इतने में फायर ब्रिगेड की कई गाड़ियां आ पहुंचीं और पानी की तेज बौछार आग की लपटों को शांत करने लगीं। एकाध घंटे बाद लपटों की जगह धुआं उठता दिख रहा था। हम सब सोने चल दिए।
समाचार पत्र में पेज नंबर तीन पर अग्निकांड को विस्तार से छापा गया था। गनीमत थी कि कोई मौत नहीं हुई थी। कुछ लोगों की गृहस्थी जल गई थी। अग्निपीड़ितों की मदद के लिए हाथों में खाने के कुछ पैकेट लेकर हम वहां गए तो देखा दो बच्चे वहां जले पड़े झोपड़े में एक जल गए बोरे में से कुछ भुने आलू छांट रहे थे। मन में एक ही सवाल कौंध रहा था-कौन-सी आग बड़ी थी, कल रात लगी आग या यह पेट की।
1 comment:
"मन में एक ही सवाल कौंध रहा था-कौन-सी आग बड़ी थी, कल रात लगी आग या यह पेट की।"
namaskar pawan jee, aaj hee apka blog padha,
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